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राम कथा - अवसर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :170
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6496
आईएसबीएन :81-216-0760-4

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राम कथा पर आधारित उपन्यास, दूसरा सोपान

छः


समाचार फैल चुका था। मार्गों पर अपार भीड़ एकत्रित थी। प्रत्येक भवन के द्वार तथा गवाक्ष खुले थे। गरजते हुए समुद्र के समान, विराट् जन-समुदाय, एकत्रित था। प्रत्येक गली में निकल-निकलकर, भीड़ उस जन-समुदाय में मिलती जा रही थी। कुछ लोग मौन थे, कुछ धीरे-धीरे बातें कर रहे थे, कुछ चीख-चिल्ला रहे थे। सब ओर एक प्रकार का क्षोभ, एक आवेश, एक क्रोध और विरोध विद्यमान था। किंतु कोई नहीं जानता था कि उसे क्या करना चाहिए, वह क्या करना चाहता है...।

राम ने सतर्क दृष्टि से लक्ष्मण को देखा, ''सौमित्र! इस जन-समुदाय को देख रहे हो : यह आवेश में है; स्वयं को अक्षम पाकर, असंतुष्ट और पीड़ित भी है। यह जन-समुदाय अति प्रज्वलनशील और विस्फोटक है। देखना, कहीं अपने व्यवहार अथवा वाणी से उकसा मत देना, नहीं तो विप्लव हो जाएगा। सारी व्यवस्था समाप्त हो जाएगी। माता कैकेयी अपनी प्रतिहिंसा में भूल गई कि शासक को बनाने और पदच्युत करने में, प्रजा की इच्छा बहुत महत्त्वपूर्ण तत्व है। प्रजा की इच्छा के विरुद्ध, वे भरत को तो क्या, मुझे भी अयोध्या का सम्राट् नहीं बना सकतीं। यह घरेलू झगड़ा भी, राजनीतिक आयाम मिलते ही, विप्लव में बदल जाएगा।''

''इच्छा तो होती है कि धनुष लेकर, इस समुदाय के आगे-आगे चलूं और कैकेयी के महल पर पहुंचकर, बस एक बार ललकार दूं।'' लक्ष्मण बोले, ''किंतु वन जाने के लिए शांत रहना ही उचित है।''

वे लोग बढ़ते रहे। उनके साथ-साथ भीड़ भी बढ़ती गई। कैकेयी के महल तक पहुंचते-पहुंचते, असंख्य लोग राम के पीछे चल रहे थे।

महल में प्रवेश करने से पूर्व, राम भीड़ की ओर मुड़े; और ऊंची आवाज में बोले, ''मित्रो! मैं आपके प्रेम और स्नेह का अभिनन्दन करता हूँ। आप अशांत न हों। माता कैकेयी ने मुझे वन भेजना चाहा है और पिता ऐसी आज्ञा देना नहीं चाहते। समाधान यही है कि वन जाने का दायित्व मैं अपने ऊपर ले लूं। मैं वही कर रहा हूँ। सीता और लक्ष्मण मेरे साथ जा रहे हैं। अयोध्या का दायित्व, मैं आप पर छोड़ रहा हूँ। राजा कोई भी हो, किंतु अयोध्या आपकी है। राज्य शासक का नहीं, जनता का होता है। आप सजग रहें, सचेत रहें। अपनी अयोध्या की रक्षा करें और देखें कि अयोध्या का कोई भी शासक, अनीति के मार्ग पर चल, दंभ अथवा विलास में पड़ जन-विरोधी शासन न करे।''

राम ने हाथ जोड़कर, मस्तक झुका, प्रजा का अभिवादन किया; और महल के प्रवेश-द्वार की ओर मुड़ गए। अपनी पीठ के पीछे, प्रजा के लाखों कंठों से वह अपनी जय-जयकार सुन रहे थे।

सुमंत के माध्यम से सूचना भिजवा, जिस समय राम सीता और लक्ष्मण के साथ भीतर प्रविष्ट हुए, कैकेयी के कक्ष में प्रातःकाल जैसा एकांत नहीं था। वहां माता कौसल्या, माता सुमित्रा तथा सम्राट् की अन्य रानियां उपस्थित थीं। वसिष्ठ भी विराजमान थे। राज-परिषद् के मुख्य सदस्य, मंत्री, अमात्य तथा सेनापति भी विद्यमान थे। सम्राट् पहले के समान पृथ्वी पर नहीं पड़े थे : उन्हें पलंग पर लिटा दिया गया था। ऐसा लगता था, जैसे राजपरिवार और राजदरबार के सभी मुख्य व्यक्ति सम्राट् को घेरकर किसी महत्त्वपूर्ण घटना की प्रतीक्षा कर रहे थे। राम, सीता तथा लक्ष्मण ने आँखें मूंदे, निःस्पंद पड़े दशरथ को प्रणाम किया।

राम ने मंद स्वर में कहा, ''पिताजी!''

दशरथ कुछ कहने का साहस बटोरे, उससे पूर्व ही अनेक भारी-कंठों से सस्वर रुदन और चीत्कार फूट पड़ा।

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पाँच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. बारह
  13. तेरह
  14. चौदह
  15. पंद्रह
  16. सोलह
  17. सत्रह

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